कविता का सच* कवित्री अनुमेहा की प्रस्तुति
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*कविता का सच*
सुनो, कविता का
एक सच सुनो
जब सारे चौकन्ने
झूठ सोते है,
तब शर्मीली-सी
सच्चाइयाँ कविता
में
अंकुरित हो
जागती है।
जब हमारी मिली-जुली
इच्छाएँ हारने
लगती है
तो वे हुनर की
शरण ले लेती हैं।
तुम्हारी स्मृतियाँ
मुँह लटकाये
घर की दरों-दीवार
पर आ बैठती है।
वहाँ उसे
देहरहित उपस्थिति के
स्वादिष्ट
दिलासे नही पसन्द
जहाँ शाखाओं की
जड़े पेड़ के भीतर
फूटती है
वहाँ प्रेम की
शाखाएँ
स्मृतियों के भीतर
जा फूटती है।
मिठास रंगों में डूबा
हुआ
ऊन का
गोला है
जिसे बहते पानी
के मध्य रख दें
तो
रंग तमाम उम्र
एक गाढ़ी लकीरों
में
बन बहता रहता है।
यह प्रत्येक शहर
में है
काम पर जाती
या
लौटती हुई
अनन्त शोर से
स्वयं को बचाने
के प्रयत्न
में लगी हुई है।
ये दिन-भर का
एक तरह का
सच है।
प्रेम की गहनतम
अनुभूतियों में
तुम्हारी क्रूरताएं
दर्ज हैं
अपने स्थान
अपने संघर्षों के
अनेक किस्से
लिखते रहे हैं।
कहा गया है--
नगरों-महानगरों के कवि !
ओस की तरह है,
उनकी कामनाएँ,
इच्छाएँ,
अभिलाषाएँ
जो कठोर मेहनत
और दुःख की
आँच में
सूख जाते हैं
और हरेक शहरों की
छोटी-सकरी
गलियों में
जहाँ उनके किराये
के मकां में
अनगिनत स्मृतियों में
गंध से
उनके देवताओं
के सम्मुख
सस्ती
किन्तु
खुशबूदार
अगरबत्ती के
गंध में
बची हुई
खुशबूओं में
तिरते हुए
रह जाते है।।
डॉ. पल्लवी सिंह 'अनुमेहा'
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मध्यप्रदेश
भारत

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