मैं कहीं भी रहूं

सुप्रभा पाठक, वाराणसी 




मैं कहीं भी रहूं 

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 मैं और मुझमें तुम ( आत्मा और परमात्मा)

 मैं कहीं भी रहूं 

इश्क के धागे से बांधा ही नहीं मैंने तुझे कभी, 

रूह के हर रेशे से जुड़ा है तेरा-मेरा रिश्ता 

 चाहे मै कहीं भी रहूं ||

 मै खुद से अलग तुम्हें समझी ही नहीं कभी,

 एक अथाह समंदर है तूफानी जज्बातों का 

 डूब गई उसमें मैंने तैरना सीखा ही नहीं ||

 तुमको देखा है मैंनें रूहानी आईने में इस कदर,

 तू और कहीं इस कदर कभी दिखा ही नहीं 

 तू आईना है जिसमें मेरी सूरत में तू दिखे चाहे मैं कहीं भी रहूं ||

 हां बांधा ही नहीं मैंने किसी रिश्ते के बंधन में तुम्हें कभी,

 अधिकारों के बंधन में रिश्ता कभी निभा ही नहीं 


 है रूहानी ये मोहब्बत अपनी 

  मैं कहीं भी रहूं ||

 हाँ मैं वो हूँ तुम्हारे लिए जो मिली ही नहीं तुम्हें कभी,

 मगर यह भी सच है मै तुमसे कभी जुदा भी नहीं ||

         स्वरचित- सुप्रभा पाठक 

                 उत्तर प्रदेश वाराणसी

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